श्री महंत श्री किशोर दास जी महाराज जी के सन्दर्भ में कुछ विशेष जानकारी अभी वर्तमान में उपलब्ध नहीं है। तथ्यों के आधार पर विस्तृत एवं प्रमाणिक जानकारी भविष्य में दी जाएगी। ये महाराज श्री लगभग 19 वीं सदी के अंतिम चरण से लेकर 20 वीं सदी के प्रारंभिक चरण तक श्री पंच रामानंदी निर्मोही अखाड़ा बैठक राघव प्रयाग श्री चित्रकूट धाम के माननीय श्री महंत पद पर अभिषिक्त रहे।
श्री महन्त श्री पञ्चम दास जी महाराज जी, श्री पंच रामानंदी निर्मोही अखाड़े की गौरवशाली परंपरा के एक महान संत थे। वे उपरोक्त अखाड़े के नागा एवं चित्रकूट बैठक के श्रीमहंत पद पर दीर्घकाल तक आसीन रहे। उन्होंने श्री कामदगिरि परिक्रमा के केंद्र विंदु प्राचीन चढती पैकरमा (श्री कामदगिरि प्रदक्षिणा प्रमुख द्वार) का प्रारंभिक विस्तार किया। भगवन्नाम जप में उनकी अनन्य निष्ठा थी तथा प्राचीन वैष्णव विरक्त संत परंपरा के वह प्रबल समर्थक थे। जिसकी प्रेरणा उन्होंने अपने शिष्य वर्ग को भी सदैव प्रदान की। महाराज जी के सबसे योग्य एवं प्रिय शिष्य श्री महंत श्री प्रेम पुजारी दास जी थे। जिन्हें उनकी योग्यता, कर्मठता एवं साधुता से प्रसन्न होकर उन्होंने अपना उत्तराधिकारी सन् 1958 में बनाया। महाराज जी के व्यक्तिगत जीवन के संदर्भ में अधिक प्रामाणिक जानकारी अभी तक उपलब्घ नहीं है। जन्मकु्ंडली के अनुसार इनका जन्म संवत् 1931 में श्रावण मास, शुक्ल पक्ष, पंचमी (नाग पंचमी)की तिथि, दिन सोमवार को (सन् 1874 के आसपास) बुंदेलखंड क्षेत्र के अंतर्गत बाँदा जनपद के जारी ग्राम निवासी एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था और इनका महाप्रयाण सन् 1974 के आसपास श्री चित्रकूट धाम में हुआ था।
सिंहस्थ भूषण
सनातन धर्म के उन्नत क्षितिज के दैदीप्यमान नक्षत्र श्री महंत श्री प्रेम पुजारी दास जी महाराज "सिंहस्थ भूषन" श्री चित्रकूट धाम तीर्थ के ही नहीं वरन् सम्पूर्ण भारतवर्ष की महानतम् आध्यात्मिक विभूति थे। वे इस आश्रम के वास्तविक संस्थापक एवं विकास पुरुष थे। ट्रस्ट की स्थापना करके उन्होंने ट्रस्ट के संस्थापक अध्यक्ष के पद का गौरव भी प्राप्त किया। पूज्य महाराज श्री का जन्म उत्तर प्रदेश के पावन वाराह क्षेत्र (बाराबंकी जनपद)में हैदरगढ़ तहसील के अंतर्गत असंधरा बाजार के निकट शेषपुर दामोदर गांव में एक भारद्वाज गोत्रीय ब्राह्मण मिश्र परिवार में हुआ था। महाराज श्री के पूज्य माता-पिता का नाम श्रीमती मनराजा देवी एवं श्री रामहर्ष मिश्र था। महाराज श्री राष्ट्रभक्ति एवं श्री राम भक्ति के अद्भुत समन्वयक थे। यह कह पाना बहुत मुश्किल था कि उनके अन्तःकरण में राष्ट्रभक्ति प्रमुख थी या प्रभु श्री राम के प्रति निष्काम भक्ति। अपने विद्यार्थी काल में ही उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन में सम्मिलित होकर देश की आजादी के लिए एक सजग प्रहरी का दायित्व निभाना प्रारम्भ कर दिया। किन्तु राष्ट्रभक्ति की अलख जगाते हुए भी उनके अंदर एक आध्यात्मिक ज्योति सदैव प्रकाशित रही। विदेशी दासता से मुक्ति के लिए शांतिपूर्ण प्रयासों के वे प्रबल समर्थक थे किन्तु क्रांतिकारियों के प्रति भी उनकी सद्भावना एवं निष्ठा निरंतर बनी रही। गाँधीवादी दर्शन उनकी प्रेरणा का स्रोत था। महान स्वातंत्र्य प्रेमी श्री सत्यप्रेमी जी को वे अपना राजनैतिक गुरु मानते थे। राष्ट्र की स्वाधीनता के लिए उन्होंने दो बार जेल यात्रा की किन्तु ईश्वर की कृपा से अपनी साधना के द्वारा जेल को भी उन्होंने एक आध्यात्मिक तीर्थ बना दिया। विदेशी दासता से मुक्ति के बाद वे देश के नव निर्माण के लिए भी आधार स्तम्भ बने। सन् 1952 से सन् 1957 तक वे उत्तर प्रदेश विधानसभा के माननीय सदस्य भी रहे और उस अवधि में उन्होंने अपने क्षेत्र में विकास के अनेक कार्य सम्पादित करवाए। गोमती नदी पर नैपुरा घाट का पुल इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है। सन् 1958 से सन् 1994 तक वे इस संस्था के प्रतिष्ठित श्री महंत रहे। सन् 1989 में वे तीर्थ राज प्रयाग के महाकुम्भ के अवसर पर अखिल भारतीय श्रीपंचरामानंदी निर्मोही अनी अखाड़े के श्री महंत पद पर प्रतिष्ठित हुए और उन्हें "सिंहस्थ भूषण" की उपाधि से विभूषित किया गया। संत समाज में व्याप्त भाई-भतीजावाद के रोग से मुक्ति के हेतु उन्होंने भविष्य की सर्वथा उचित व्यवस्था के लिए एक ट्रस्ट का गठन किया और अपने साकेत गमन तक ट्रस्ट के संस्थापक अध्यक्ष्य रहे। उनके जीवन का लक्ष्य था कि हमारे द्वार से कोई भी भूखा ,प्यासा ,उदास, निराश, उपेक्षित होकर वापस न जाये । चित्रकूट जैसे आरण्यक तीर्थ में उन्होंने एक विशाल अन्न क्षेत्र का संपादन किया। उनकी सरलता ,करुणा ,निरभिमानिता, प्रेम एवं ईश्वर-भक्ति आज भी लोक विश्रुत है। श्री कामदगिरि गिरिराज की पवित्र क्षत्रछाया में उन्होंने अपने प्रभु श्री सीताराम जी के दो बार दर्शन किये एवं अंत में अपने प्रभु का स्मरण करते हुए 21 अक्टूबर सन् 1994 को प्रातःकाल लगभग पौने 9 बजे अपनी लोकलीला का संवरण करते हुए अपने प्रभु के चरणों में विराजमान हो गए। महापुरुष शरीर से मरकर भी अपने व्यक्तित्व से अमर हो जाते हैं। आज भी ट्रस्ट उनके आदेशों, निर्देशों एवं आदर्शों के अनुसार अपने समस्त कार्य संचालित कर रही है।
डॉक्टर साहब के उपनाम से सुप्रसिध्द श्री महंत श्री पुरूषोत्तम दास जी महाराज जी का पूर्व नाम डॉक्टर पुरुषोत्तम शरण मिश्र था। उनके पूज्य पिता स्वर्गीय श्री दुर्गादीन मिश्र (स्वामी जी महाराज)थे। जो अध्यापन सेवा क्षेत्र में संलग्न रहते हुए एक भगवत्कृपा प्राप्त महान गृहस्थ संत थे । महाराज श्री की पूज्य माता श्री का शुभ नाम श्रीमती लग्ना देवी था । इनका जन्म संवत 1983 चैत्र मास कृष्ण पक्ष सप्तमी तिथि दिन शुक्रवार(25 मार्च सन् 1926) को हुआ था। श्री कलानाथ मिश्र नामधेय इनके अग्रज इनकी जन्मभूमि में स्थित गुरु गद्दी के व्यवस्थापक थे। महाराज श्री की विशेष रूचि साहित्य एवं चिकित्सा में थी। वे एक सुप्रसिध्द कवि एवं रोगी जनों में अपने इष्ट देव प्रभु श्री राम जी का दर्शन करने वाले अत्यंत सरल संत थे। वे प्राय: पुरुषेश उपनाम से काव्य रचना किया करते थे। श्रद्धेय डॉक्टर साहब श्री कामदगिरि प्रदक्षिणा प्रमुख द्वार (उत्तर) ट्रस्ट में सन् 1994 से सन् 2006 तक लगभग 12 साल तक महंत पद पर अभिषिक्त रहे। साथ ही साथ श्री कामदगिरि प्रदक्षिणा प्रमुख द्वार (उत्तर) ट्रस्ट एवं श्रीराम झरोखा ट्रस्ट के अध्यक्ष भी रहे। उनकी सरलता, सज्जनता ,साधुता एवं उदारता आज भी लोक प्रसिध्द है। वे भजनानंदी सन्त होते हुए भी सेवा को साधना का सर्वश्रेष्ठ अंग मानते थे। उनका देहावसान 30 जुलाई सन् 2006 को हुआ था।
श्री महंत श्री रामजी दास जी महाराज जी का जन्म वशिष्ठ गोत्र के अंतर्गत आस्पद मार्जनी मिश्र में 10 फरवरी सन् 1940 को पूज्य पिता श्री बृजगोपाल मिश्र एवं पूज्या माता श्रीमती धोखिया देवी जी के यहाँ हुआ था। श्री कामता नाथ भगवान जी के विश्ववंदनीय दरबार के इस गौरवशाली महंत परंपरा के अगले स्तंभ थे - नागा रामजी दास रामायणी जी महाराज। जिन्होंने अपनी सरस एवं हृदयस्पर्शी मधुर वाणी के द्वारा लगभग सम्पूर्ण भारत वर्ष में श्री राम कथा का प्रचार-प्रसार किया। उनकी प्रवचनशैली जन सामान्य को अत्यधिक प्रिय थी। महाराज श्री ने बिलासपुर (छत्तीसगढ़) में एक भव्य मानस मंदिर की स्थापना की और उसे अपनी पुनीत साधना का केंद्र बनाकर सम्पूर्ण भारत वर्ष में सनातन धर्म के पावन प्रचार-प्रसार में आजीवन संलग्न रहे। उन्होंने अपने स्वास्थ्य कारण से अपने जीवन काल में ही अपने सुयोग्य शिष्य नागा श्री रामस्वरूप दास अनन्त श्री विभूषित जगद्गुरु रामानन्दाचार्य कामदगिरि पीठाधीश्वर स्वामी श्री रामस्वरूपाचार्य जी महाराज जी को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था। जिन्हें कालांतर 14 जनवरी सन् 1911 को अखिल भारतीय श्री पंच रामानंदी निर्मोही अखाडे के रीति रिवाज के अनुसार कंठी चद्दर प्रदान करके महंत पद पर अभिषिक्त किया गया । अपने प्रिय शिष्य को उत्तराधिकार प्रदान करने के उपरांत उन्होंने निरंतर भगवत कथा एवं भगवत स्मरण करते हुए 9 मार्च सन् 2013 को महाप्रयाण किया । किसी भी व्यक्ति के जीवन के अंतिम क्षण उसके सम्पूर्ण जीवन के प्रतिबिम्ब होते हैं। महाराज श्री ने भगवत चरणों में प्रणिपात निवेदित करते हुए बिना किसी कष्ट के अपना नश्वर शरीर को त्याग कर भगवत धाम को प्राप्त किया ।
वर्तमान महंत पूज्य महाराजश्री श्री महंत श्री रामस्वरूप दास जी महाराज जी का जन्म श्री उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र में स्थित जालौन जिले के अंतर्गत कूंड़ा ग्राम में सुप्रसिद्ध सरयू पारीय ब्राह्मण वंश परंपरा में पिता श्री कौशल किशोर दुबे एवं माता श्रीमती लक्ष्मीबाई जी के यहाँ हुआ था। भगवत कृपा एवं जन्म जन्मांतर की साधना के परिणाम स्वरुप बाल्य काल से ही अंतर्मुखी भगवत निष्ठ स्वभाव वाले रहे। आधुनिक शिक्षा में रूचि न होने के कारण 13 वर्ष की अल्पायु में ही संतों की टोली के साथ गृह त्यागी होकर अनेक तीर्थों का भ्रमण करते हुए पावन माघ मास में तीर्थराज प्रयाग पहुंचे। पूज्य पाद को शैशवावस्था से ही किसी महापुरुष के दर्शन सपनों में हुआ करते थे। जिनके प्रति महाराज श्री की श्रद्धा उत्तरोत्तर बढ़ती चली गयी। तीर्थराज प्रयाग में सिंहस्थ भूषण अनन्त श्री विभूषित श्री महंत श्री प्रेम पुजारी दास जी महाराज जी के खालसे में अपने उन्हीं श्रद्धास्पद संत भगवान के शुभ दर्शन प्राप्त करके जीवन की धन्यता का बोध किया। वे महापुरुष कोई और नहीं वरन् परम पूज्य श्री प्रेम पुजारी दास जी महाराज जी ही थे। जिनके उन्हें प्राय: स्वप्न में दर्शन होते थे। महाराज श्री सन् 2000 में उत्तर प्रदेश के जालौन जिले के अंतर्गत कोंच कस्बे में स्थित नरसिंह पीठ के पीठाधीश्वर अनंत श्री विभूषित जगद्गुरु रामानंदाचार्य श्री रामस्वरूपाचार्य जी के रूप में प्रतिष्ठित हुए । कालांतर 14 जनवरी सन् 1911 ईस्वी को श्री कामतानाथ मंदिर के श्रद्धेय महंत चुने जाने के बाद वे श्री कामदगिरि पीठाधीश्वर भी हो गए।
जीवन यात्रा एक सच्ची तीर्थ यात्रा है।मनुष्य की जीवन शैली यदि आदर्श एवं तीर्थ की तरह पवित्र हो तो उसका सम्पूर्ण जीवन एक पवित्र तीर्थ यात्रा बन जाता है। हमारी सनातन संस्कृति में उस प्रत्येक स्थान को तीर्थ माना गया है, जहाँ पर या तो परमात्मा की कोई लीला संपन्न हुई हो या किसी उच्च कोटि के तपस्वी महापुरुष ने साधना की हो । अधिकांश तीर्थ स्थल किसी पवित्र नदी ,पर्वत या वन अंचल में स्थित होते हैं। इन तीर्थों में मर्यादा पूर्वक यात्रा करने पर अथवा कुछ समय प्रवास करने पर आध्यात्मिक ऊर्जा की प्राप्ति होती है। किन्तु उल्लेखनीय तथ्य यह है कि जैसे तीर्थों में किये गए सत्कर्म अनंत गुना फल देने वाले होते हैं, उसी प्रकार तीर्थ में किये गए पाप भी जीव मात्र के लिए अत्यंत दुखदायी सिद्ध होते हैं। तीर्थ में स्नान, ध्यान, सेवा, सत्संग, भगवत पूजन, नाम जप एवं ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए, मर्यादा पूर्वक समय का सदुपयोग करना चाहिए। व्यर्थ वार्ता से बचे, कुसंग का सर्वथा त्याग करें और अपने जीवन के प्रत्येक क्षण को भगवत चिंतन में ही लगाएं । हाथों से सत्कर्म करें, वाणी से सत्य एवं मधुर बोलें तथा मन से शुभ विचारों का चिंतन करें। बड़े - छोटे की मर्यादा का सम्मान करे । तीर्थों में यहाँ-वहाँ गन्दगी न फैलाएं और इस प्रकार से तीर्थ यात्रा संपन्न करें कि जब भी उसका स्मरण हो अंतः करण प्रसन्न हो जाये ।